रचनाएं:- संत षिरोमणि सैन जी महाराज आध्यात्मिक
संत शिरोमणि सैन जी महाराज
रचनाएं:- संत षिरोमणि सैन जी महाराज
आध्यात्मिक गुरू और समाज सुधारक के साथ साथ उच्च कोटि के कवि भी थे।
उन्होने अनेक भाशाओं में रचनाए लिखी जिनमें पंजाबी, हिन्दी, मराठी, तथा
राजस्थानी भाशाए षामिल है। पंजाबी भाशा (गुरूमुखी) में हस्तलिखित सैन सागर
ग्रंथ उपलब्ध है। इसकी एक फोटो प्रतिलिपि देहरा बाबा सैन भगत प्रतापपुरा
जिला जालंधर पंजाब में सुरक्षित रखी है। इसमें दो प्रकार की रचनाए दर्ज है।
पहली रचनाओं में संत सैन जी की वाणिया दर्ज है।जिनकी मूल संख्या 62 है।
दूसरी वे रचनाए हैं जो सैन जी के जीवन से संबंधित है जो उनके किसी
श्रद्धालु भक्त या किसी परिवार के सदस्य ने लिखी है। यही सैन सागर इनका
सबसे प्राचीन ग्रंथ है।
इतिहासकार एच0एस0 विलियम ने अनपे षब्दों को
अभिव्यक्त करते अुए कहा है कि सैन जी उच्च कोटि के कवि थें। उन्होनें अलग
अलग भाशाओं में रचना की जो उनकी विद्वता प्रमाणित करती है। उनकी रचनाओं मे
बडी मधुरता थी। उनके भजन बडे मनमोहक व भावपूर्ण थे। सैन जी ने समकालीन
संतों की वाणी को भली भांति समझा असलिए उनकी वाणियों में भी समकालीन संतों व
भगतों के नाम दर्ज है। सैन जी अपनी वाणी में लिखते हैः-
‘‘ सब जग ऊंचा, हम नीचे सारे।
नाभा, रविदास, कबीर, सैन नीच उसारे।।
अपनी
वाणी में सैन जी ने मानवीय परिवेष का इतना सषक्त प्रस्तुतीकरण किया है
जैसे गागर में सागर भर दिया गया हो। सैन सागर ग्रंथ में सैन जी भगत रविदास
जी साखी सैन भगतावली में लिखतें हैः-
‘‘ रविदास भगत ने ऐसी कीनी
ठाकुर पाया पकड अधीनी
त्ुालसी दल और तिलक चढाया
भोग लपाया हरि धूप दवायां
सैन दास हरिगुरू सेवा कीनी
राम नाम गुण गाया।।‘‘
श्री
सैन सागर ग्रंथ के अतिरिक्त भिन्न भिन्न राज्यों में संत सैन के साहित्य
ने महत्वपूर्ण लोकप्रियता प्राप्त की। आपका साहित्य महारााश्ट, राजस्थान,
मध्यप्रदेष और गुजरात जैसे प्रांतों में था। लेकिन सवर्ण जातियो का बोलबाला
होने के कारण आपके साहित्य का अधिक प्रचार प्रसार न हो सका। आपके साहित्य
की सबसे बडी उपलब्धि भी गुरूग्रंथ साहिब में आपकी वाणी का दर्ज होना है।
जिससे आपको बहुत बडा सम्मान प्राप्त हुआ। और सौन समाज का भी गौरव बढा है।
गुरूग्रथं साहिब मं सैन वाणीः- गुरूग्रथं साहिब में जहां सिक्खों के सभी
गुरूओं की वाणिया दर्ज है। वही सभी संतों को इसमें सम्मान दिया गया है।
जिसमे रविदास व कवीरदास के साथ साथ सैन जी महाराज भी एक है। सैन जी द्वारा
रचित बहुत सी रचनाए गुरूग्रथं साहिब में संग्रहित है जिनमें गगन बिच थालू
प्रमुख है। श्री गुरू अर्जुनदेव जी महाराज अनका सत्कार करते हुए गुरू ग्रंथ
साहिब में लिखते हैः-
सैन नाई बुत करिया, वह धरि धरि सुनया।
हिरदै बसिया पार ब्रहमि भक्तों वि गिनिया।।
गुरू
अर्जुन देव जी ने आपकी वाणी को री गुरू ग्रंथ साहिब में षामिल करके आपको
गुरूओं व संतो ंके योग्य स्थान पर बिठाया। चैथे पातषाह री गुरू राम दास जी
महाराज द्वारा रचित श्री गुरू ग्रंथ साहिब पृश्ठ संख्या 835 पर निम्नलिखित
पंक्ति में लिखतें हैः-
‘‘ नामा जे देऊ कबीर कबीर त्रिलोचन आऊ।
जाति रविदास चमियार चमीईया।।
जे जो मिलै साधु जन संगिति धन।
धन्ना जट सैन मिलिया हरि दईया।।
स्ंात जन की हरि पैज रखाई।
भगत बछल अंगीकार करईया।
नानक सरनि परे जग जीवन।
हरि किरपा धरि रखईया।
इन
पंक्तियों में श्री गुरू रामदास जी ने अपने से पहले हो चुके भगत नामदेव
भगत जै देव भगत कबीर भगत रविदास भगत धन्ना भगत सैन जी ने बारे में पवित्र
वचन कहते हुए कहा कि ये सब प्रभु की असीम कृपा से सांसारिक भव वंदन से
मुक्त होकर प्रभु रूप् बन गए। सैन जी की उपमा पहली बार गुरू घर से श्री
गुरू रामदास जी ने उनका नाम उच्चारण करके की है।
पंचम गुरू
श्री अजर्ुन देव जी ने महाराज श्री गुरू ग्रंथ साहिब के पृश्ठ संख्या 1192
पर इस प्रकार लिखते है कि अन्य भगतों के साथ.साथ सैन भगत जी सेवा भावना से
साथ इस इस जग से तर गए है इस पवित्र षब्द के अंत में गुरू नानक देव जी को
प्रभु का रूप कहा गया है। इस प्रकार भगतों व गुरूओं की सूची में सैन जी का
नाम बडे आदरपूर्वक लिया जाता है। श्री गुरू ग्रंथ साहिब के पृश्ठ संख्या
1207.1208 पर गुरू अजर्ुन देव द्वारा पचित पंकितया इस प्रकार हैरू.
ऊंकार सतिगुरू प्रसादि।
ऊंआ असऊर कै हऊ बलिजार्इ।।
आठ पहर अपना प्रभु सिमारन बडभागी हरि पार्इ।
रहाऊ भले कबीर दास दासन को अत्तम सैन जन नार्इ।।
ऊंच ते ऊंच नामदेऊ समदरसी रविदास ठाकर बनि आर्इ।
जीऊ पिंड तनु धनु साधनु का इह मन संत रेनार्इ।।
संत प्रिताप भ्रम सभि नासै नानक मिले गुसार्इ।।
उपरोक्त वाणी संतों एवं भक्तों की वाणी हैं। इस वाणी को एकत्रित कर श्री
गुरू ग्रंथ साहिब में षामिल करके इन पवित्र वचनों को युगों.युगों तक संभाल
कर रख लिया गया है। गुरू श्री अर्जुन देव जी साहिबानों तथा भठटों की वाणी
के अलावा 15 भक्तों की वाणी को भी इस विष्व प्रसिद्ध ग्रंथ में संभाल कर
रखा है उपरोक्त वाणी में गुरू अजर्ुनदेव जी भगतों की महिमा गाते हुए सबसे
पहले कबीर का नाम लेते हुए कहते है कि कबीर बहुत भले भगत थे वह तो रासों के
भी दास थें। उनका महागान करते हुए दूसरा नाम गुरूजी सैन जी का लेते है।
इन्होने भगत सैन जी का उत्तम भगत की पदवी के साथ प्रषंसा की है। गुरू जी
द्वारा सैन जी मो उत्तम भगत की पदवी के साथ प्रषंसा की है। गुरू जी द्वारा
सैन जी को उत्तम भगत की पदवी देने से हमे सैन जी की महानता का पता चलता है।
भगत सैन जी प्रभू से ओत.प्रोत थे। वह अपने आपको भगतों को चरणो की घूल
समझते थे।
गुरू जी की उपाधीरू. सैन जी बाधव गढ के राजा बीर सिह जी के
यहां क्षौर कर्मी थे ये अतिथि सतकार साधू संंतों की सेवा और सत्संग करना ही
अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य समझते थे। आध्यातिमक षिक्षा सच्चे मानवता के
गुणों को आम जनता तक पहुचाने एवं मानव सेवा को ही र्इष्वर सेवा के ज्ञान का
बोध कराना ही उनका परम धर्म था। सैन जी ने जहां भी कल्याण यात्राए की वहीं
अपने सत्संग का प्रभाव छोडते चले गये। बांधव गढ में भी आपके सत्संग की
महिमा ने धूम मचां दी। आने सत्संग में उन नीची जातियों को भी स्थान दिया
जिनसे लोग घृणा करते थे। इससे ब्राह्रामणों ने र्इश्र्यावष राजा बीर सिंह
ने सैन जी की षिकायत की कि सैन जी अछूतों का साथ लेकर मंदिर में सत्संग
करके उनकी पवित्रता को भ्रश्ट कर रहे है जिससे हमाराार्म नश्ट हो रहा ळै।
राजा बीर सिंह ब्राह्राणों की बात सुनकर बडे क्रोधित हुए और कुछ सिपाहियों
को अपने साथ लेकर मंदिर पहुचे जहां सैन जी एक कुश्ठ रोगी के जख्मों पर
मरहम लगा रहे थे और साथ ही साथ र्इष्बर से प्रार्थना कर रहे थे कि हे भगवान
इस रोगी पर अपनी कृपा करों। इसे स्वस्थ कर दो चाहे इसके सारे कश्ट मुझे दे
दो। रा कल्याण की बात सुनकर महाराजा बीर सिंह बहुत अचंभित हुए और उनका
सारा क्रोध षांत हो गया। तब षांत भाव से महाराजा ने सैन जी से पुछा कि आपने
अछूतो को मंदिर में लाकर मंदिर की मर्यादा को क्यों भंग कियाघ् तब सैन जी
ने महाराज से प्रष्न किया कि सवार्थी ब्राह्राणों व अडूतों मे क्या फर्क
हैघ् क्या ये एक ही भगवान के बनाए इंसान को कियाी को छूत.अछूत बनाने का
क्या अधिकार हैघ् इन स्वार्थी ब्राह्राणों ने ही अपने स्वार्थ के लिए
इन्हें ऊंच.नीच और छूत.अछूत बनाया है। उनके विचारो से प्रभावित होकर राजा
ने कहा धन्य हैं आप जो महान कार्य कर रहे है। मै आपका सम्मान करता हू।
तत्पष्चात राजा बीर सिंह ने हाथ जोडकर सैन जी से प्रार्थना की कि मैने
आपका यष सुना था और आज आंखों से देख भी लिया आप भगत के साथ.साथ गक कुषल
जर्राह भी है। आपने अगगिनत लोगो का कल्याण किया है। क्या आप मेरी पीठ के
फोडे को ठीक करके मेरा भी कल्याण कर सकते हैघ् तब सैन जी ने षांत चित्त से
जवाब दिया राजन ठीक करने वाला भला मैं कौन हूंघ् मेरा काम तो भगवान से
प्रार्थना करना है। ठीक करना तो भगवान के हाथ में है। यह सैन ज की महानता
ही थी कि वो अपने आपको तुच्छ समझते थें। तब राजा ने सैन जी से अपने फोडे का
इलाज षुरू करने का आग्रह किया तब सैन जी ने उनका इलाज कर फोडे को ठी कर
पूर्ण रूप् से स्वस्थ कर दिया जिससे राजा बहुत प्रभावित हुआ।
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