श्री गुरूवे
नम:
गृहस्थ धर्म बोध
बिन्दु
लिख्ू या नही
लिख्ू चित्त मे
दुविधा भारी ।
क्या सोचे क्या
मुझे कहेगे सब
घ्रबारी ।।
क्यो कर लिख्ू
चरित्र भोग रहे
क्या तुम नाही
।
कौन सुखी घर
—बारी यहा कलियुग
के माही।। 2 ।।
जीवन की आधार
शिला को कभी
न मानी ।
मान मर्यादा गृहस्थ् धर्म
की बात न
जानी ।। 3।।
लेकर जग मे
जनम मूल को
यो ही गमाया
।
संसार सुख नही
,नही परमारथ पाया
।। 4।।